चंद अशआर

ज़ुबा रखते हैं पर हम, कभी ये भी न कह सके

न हो पाये इधर के और, उधर के भी न रह सके ।

 

गुज़र ना जाय कहीं उम्र क़हर होने तक

फिसल न जाय समाँ यूँ ही सहर होने तक ।

 

न आते अक्स जेहन मे बेज़ुबाँ कायरों की तरह,

न करते बात शायद हम बदज़ुबाँ शायरों की तरह ।

 

देता है दस्तक आयना ज़ेहन के किवाड़ पर

तू आँख बंद करले तो मालिक भि क्या करे ।

जाता है वक्त हाथ से पर तू है बेख़बर

तू दर पे न जाए तो ख़ालिक़ भि क्या करे ।

 

ये उम्मीद ये समाँ तुम्हें मुबारक हो

हम तो अब सहर की उम्मीद छोड़ बैठे हैं

हम परिन्दों को अब तो चाहिये ये सारा जहाँ

हम तो सय्याद पे भी खार खाए बैठे हैं ।

 

बात उनकि नहीं जो अपनो से रंज करते हैं

साथ रहकर भि जो अलग थलग रहते हैं

न ही ये बात है उनकी, के जो हैं तलखे जुबां

ये ख़बर उनकि हैं जो पीछे से वार करते हैं ।

 

ता उम्र उन्हें अपनी हैसियत का गरूर था

और मेरे मिजाज़ में न कोई जी हजूर था ।

रक्खा मेरे मिजाज़ को मौला ने बरकरार

उनका कसूर था मगर मेरा गरुर था ।

 

अदा इनकी तमाशाई औ फ़ितरत भी बेमानी है

मंज़िल की ख़बर हमको सवारी पर न आनी है

आयें आप भी आयें और, तमाशा गौर से देखें

फ़क़त पैरों से चलना है, राह ख़ुद ही बनानी है ।