Category Archives: Hindi Poems

 चंद अशआर

ज़ुबा रखते हैं पर हम, कभी ये भी न कह सके

न हो पाये इधर के और, उधर के भी न रह सके ।

 

गुज़र ना जाय कहीं उम्र क़हर होने तक

फिसल न जाय समाँ यूँ ही सहर होने तक ।

 

न आते अक्स जेहन मे बेज़ुबाँ कायरों की तरह,

न करते बात शायद हम बदज़ुबाँ शायरों की तरह ।

 

देता है दस्तक आयना ज़ेहन के किवाड़ पर

तू आँख बंद करले तो मालिक भि क्या करे ।

जाता है वक्त हाथ से पर तू है बेख़बर

तू दर पे न जाए तो ख़ालिक़ भि क्या करे ।

 

ये उम्मीद ये समाँ तुम्हें मुबारक हो

हम तो अब सहर की उम्मीद छोड़ बैठे हैं

हम परिन्दों को अब तो चाहिये ये सारा जहाँ

हम तो सय्याद पे भी खार खाए बैठे हैं ।

 

बात उनकि नहीं जो अपनो से रंज करते हैं

साथ रहकर भि जो अलग थलग रहते हैं

न ही ये बात है उनकी, के जो हैं तलखे जुबां

ये ख़बर उनकि हैं जो पीछे से वार करते हैं ।

 

ता उम्र उन्हें अपनी हैसियत का गरूर था

और मेरे मिजाज़ में न कोई जी हजूर था ।

रक्खा मेरे मिजाज़ को मौला ने बरकरार

उनका कसूर था मगर मेरा गरुर था ।

 

अदा इनकी तमाशाई औ फ़ितरत भी बेमानी है

मंज़िल की ख़बर हमको सवारी पर न आनी है

आयें आप भी आयें और, तमाशा गौर से देखें

फ़क़त पैरों से चलना है, राह ख़ुद ही बनानी है ।

हिन्दुस्तानी

चापलूसी करना इनकी फ़ितरत है

और उसको सुनना उनकी आदत है ।

जो कोई अच्छी सलाह देता है

तो खंजर जिगर के पार होता है ।

हिन्दी

हर बन्द औ छन्द हो हिन्दी मे
गति तीव्र मन्द हो हिन्दी मे ।

हों कागज़ पत्तर हिन्दी मे

हर प्रश्न का उत्तर हिन्दी मे ।

हों वाद विवाद भि हिंदी मे

औ मुँह मे स्वाद भि हिंदी मे ।

यों हिंदी का गुणगान करें

हम भाषा का अभिमान करें ।

दुनियाँ से क्या डरना

(गीत )

वन को उपवन, सहरा को चमन और शब को सुबह क्या कहना

यारा, दुनियाँ से क्या डरना यारा, दुनियाँ से क्या डरना ।

क्या खूब कुलाबे कमज़ोरी आबाद को वीराँ कहते हैं

हाय शराफ़त मजबूरी हम भी तो वाह वाह करते हैं ।

नफ़रत को अदा, हरकत को बदा, और खुद को खुदा क्या कहना

यारा, दुनियाँ से क्या डरना यारा, दुनियाँ से क्या डरना ।

काजल को चुरा लें आँखों से ये हुनर फ़कत ये रखते हैं

मौसम बदले ये न बदले कुछ ऐसी सिफ़त ये रखते हैं ।

बदनाम को बद शुरुआत को हद, हिकमत को शफ़ा क्या कहना

यारा, दुनियाँ से क्या डरना यारा, दुनियाँ से क्या डरना ।

नाकाम हों इनकी गफ़लत से, हर कदम पे ठोकर हम खायें,

हर मौके भोली सूरत बन ये फ़िर से बिचारे बन जायें ।

तो फ़िर गाफ़िल की गफ़लत को मासूम अदा क्या कहना,

यारा, दुनियाँ से क्या डरना, यारा, दुनियाँ से क्या डरना ।

यारा, दुनियाँ से क्या डरना यारा, दुनियाँ से क्या डरना ।

दुनियाँ

ये न शरमायेगी और न ये पछताएगी

ये दुनियाँ यो ही चले है चली जाएगी ।

अपने आँचल का खुद ख्याल रखना सखी

वरना हर युग मे यों ही छली जाएगी ।

मृगमरीचिका

चारो ओर स्वजन व स्वअस्तित्व

मैं तू तेरा मेरा का संघर्ष

दिखता है इस जीवन की धूप में ।

परन्तु कितना भयानक है

अस्तित्वहीनता का अहसास

तुम्हारे जाने के बाद,

किंचित मात्र भी अन्तर न पड़ेगा ।

धरती आकाश,

जैसे का तैसा रहेगा ।

जीवित रहेंगे तुम्हारे स्वजन भी

सम्भवतया अधिक व्यवस्थित रूप में ।

नियन्त्रण

दुर्भिक्ष ?

प्रकृति का प्रकोप ।

बेकारी ?

मनुष्य मात्र की अकर्मण्यता ।

दुर्व्यवस्था ?

अराजक तत्वों द्वारा फ़ैलाई हिंसा ।

ऐसी गम्भीर समस्याओं पर,

अपने उबाऊ निष्क्रिय संसार में,

वातानुकूलित कमरे के गलीचे पर

हल्के गुलाबी माहौल और मदिरा के उन्माद में ।

कहता है मेरा गम्भीर बौद्धिक मंत्रण,

निश्चिन्त रहो, है पूरा नियन्त्रण ।

सुलझ सकती है ये सारी उलझन

कह सकता हूँ बेधड़क ।

दुर्भिक्ष मे सहायता, बेकारों को उद्योग, दुर्व्यवस्था पर शासन

सबका है समाधान

मात्र एक सड़क ।

जब चाहे बनवा दें, मगर

कैसे भरेगा फ़िर हमारा घर ?

क्यों करेगा कोई हमारा मान ?

हमें नहीं बन्द करनी अपनी दुकान ।

आतंक

आधुनिकीकरण वरदान

या मुसीबतों की खान ?

वहशी हैं सिंह

या आधुनिक भगवान ?

हो जाता  जाता है इलाज

साँप के काटे का,

पर अर्थशास्त्री हों या अधिवक्ता

है कोई जवाब इनके चाँटे का ?

कैसे बचें हम

आधुनिक मानवों की इस होड़ से ?

आतंकित हैं दिशायें तक

इस चूहा दौड़ से ।

प्रतिक्रिया

सुनते हैं

स्वदेश का अभिषेक सर्वस्व से करते थे

पर दिखता है लूट का बाजार

सुनते हैं

एक ही घाट था शेर हो या गाय

पर दिखता है सिर्फ़ मत्स्य न्याय ।

सुनते हैं

बाजार भाव समाचारों में

पर दिखता नहीं सामान बाजारों में ।

सुनते हैं—पर—

ऐसे में फ़ूटे गर कुछ ज्वालामुखी जैसा

तो इसमें आश्चर्य कैसा ?

छात्र

कुण्ठाग्रस्त

आज का छात्र,

झिड़क का नहीं दया का पात्र ।

मात पर मात

चोट पर चोट,

शतरंज की पिटी हुई यह गोट ।

किताबों के बोझ से

टूट रही कमर ।

वाह रे धैर्य –

उफ़ नहीं करता मगर ।

पाकर उपाधि हो जाता तैयार ।

दर दर भटकने को

एक और पढ़ा लिखा बेकार ।