चाय का घूँट लेते हुए गिरीश ने कहा –‘सरिता, आज तुम एक हादसे के बेहद करीब से गुज़री हो ये दूसरी बात है कि कोई हादसा नहीं हुआ परन्तु जीवनलाल और बृजभूषण नाम के नासूर इस शहर मे मजबूती से जमे हैं, इस बात से तो इंकार नहीं किया जा सकता ।’
-‘ये बात तो है । पर सतर्क रहने के अलावा हम कर भी क्या सकते हैं ?’
-‘नहीं, बुराई देख कर भी तटस्थ रहना अपराध है । नासूर का यदि इलाज न किया जाय तो वो फैलता जाता है । कल कोई दूसरी महिला उनके चक्कर मे…..।’
सुबह से अब तक हुई घटनाओं से परेशान सरिता को अब इस सम्बन्ध मे बात करने मे अड़चन महसूस हो रही थी इसलिए उसने बात खत्म करने के उद्देश्य से बीच मे ही टोकते हुए कहा –‘अभी मेरी मनस्थिति ऐसी नहीं है कि मैं कुछ सोच पाऊँ….।’
-‘मुझे अहसास है । दरअसल मैंने कुछ सोचा है ।’ गिरीश बीच मे ही बोल पड़ा ।
-‘क्या?’
-‘तुम्हें मेरा मित्र अजित तो याद होगा ?’
-‘कौन वो डी एस पी अजित प्रताप ?’
-‘हाँ वही । वो गुप्तचर विभाग मे एस पी होकर इसी शहर मे आ गया है ।’
कहानी संग्रह “भेद भरी…” से