बड़े होने का भरम – दुसरा नज़रिया

नीरजा के मायके मे हुई घटना के तीसरे दिन करीब शाम के चार बजे अनंत अपने दफ्तर मे बैठा कुछ काम कर रहा था कि तभी नीरजा का फ़ोन आया –‘अनंत जोरावरगंज मे बहुत बड़ी कपड़ों की सेल लगी है मैं जा रही हूँ ।’

‘ठीक है जाओ पर हो सके तो तो जल्दी आ जाना, क्योंकि अंधेरा होने के बाद वहाँ घटिया और उचक्के टाइप के लोग बहुत घूमते हैं इसलिए अगर अंधेरा होने लगे तो ऑटो से न आना, मुझे फ़ोन कर देना मैं आकर तुम्हें ले जाऊंगा ।’

‘ठीक है तुम चिंता न करो ।’

अनंत करीब छ: बजे घर पहुँचा तो पाया कि नीरजा अभी तक घर नहीं पहुँची थी । ये देख वो घबराया क्योंकि अंधेरा घिरने लगा था और अभी तक नीरजा का फ़ोन भी नहीं आया था । उसने नीरजा के मोबाइल पर रिंग करने की कोशिश की, तो उसका मोबाइल ऑफ निकाला । जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था उसकी चिंता बढ़ती जा रही थी । छ: से हुए साढ़े छ: और साढ़े छ: से सात । अब अनंत का धैर्य जवाब देने लगा । नीरजा ने ये भी नहीं बताया था कि वो अकेली गयी है या किसी सहेली के साथ । उसकी जितनी भी सहेलियों के फ़ोन या मोबाइल नम्बर अनंत को पता थे, एक तरफ से उसने सबको फ़ोन मिलाना शुरू किया । सबसे पहले पड़ोस की रीमा को फ़ोन मिलाया तो रीमा घर पर ही थी –‘हॅलो !’

‘रीमा भाभी मैं अनंत ।’

‘हाँ अनंत कहो कैसे हो ।’

‘ठीक हूँ भाभी आप नहीं गयी नीरजा के साथ जोरावरगंज की सेल मे ।’

‘मेरी तो आज नीरजा से बात भी नहीं हुई क्योंकि मैं तो आज पूरे दिन सेमिनार मे थी । अभी आई हूँ बड़ी थकान लग रही है ।’

‘ठीक है भाभी आप आराम करें । बाय ।’

कहानी संग्रह “भेद भरी…” से