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दुनियाँ

ये न शरमायेगी और न ये पछताएगी

ये दुनियाँ यो ही चले है चली जाएगी ।

अपने आँचल का खुद ख्याल रखना सखी

वरना हर युग मे यों ही छली जाएगी ।

मृगमरीचिका

चारो ओर स्वजन व स्वअस्तित्व

मैं तू तेरा मेरा का संघर्ष

दिखता है इस जीवन की धूप में ।

परन्तु कितना भयानक है

अस्तित्वहीनता का अहसास

तुम्हारे जाने के बाद,

किंचित मात्र भी अन्तर न पड़ेगा ।

धरती आकाश,

जैसे का तैसा रहेगा ।

जीवित रहेंगे तुम्हारे स्वजन भी

सम्भवतया अधिक व्यवस्थित रूप में ।

नियन्त्रण

दुर्भिक्ष ?

प्रकृति का प्रकोप ।

बेकारी ?

मनुष्य मात्र की अकर्मण्यता ।

दुर्व्यवस्था ?

अराजक तत्वों द्वारा फ़ैलाई हिंसा ।

ऐसी गम्भीर समस्याओं पर,

अपने उबाऊ निष्क्रिय संसार में,

वातानुकूलित कमरे के गलीचे पर

हल्के गुलाबी माहौल और मदिरा के उन्माद में ।

कहता है मेरा गम्भीर बौद्धिक मंत्रण,

निश्चिन्त रहो, है पूरा नियन्त्रण ।

सुलझ सकती है ये सारी उलझन

कह सकता हूँ बेधड़क ।

दुर्भिक्ष मे सहायता, बेकारों को उद्योग, दुर्व्यवस्था पर शासन

सबका है समाधान

मात्र एक सड़क ।

जब चाहे बनवा दें, मगर

कैसे भरेगा फ़िर हमारा घर ?

क्यों करेगा कोई हमारा मान ?

हमें नहीं बन्द करनी अपनी दुकान ।

आतंक

आधुनिकीकरण वरदान

या मुसीबतों की खान ?

वहशी हैं सिंह

या आधुनिक भगवान ?

हो जाता  जाता है इलाज

साँप के काटे का,

पर अर्थशास्त्री हों या अधिवक्ता

है कोई जवाब इनके चाँटे का ?

कैसे बचें हम

आधुनिक मानवों की इस होड़ से ?

आतंकित हैं दिशायें तक

इस चूहा दौड़ से ।

प्रतिक्रिया

सुनते हैं

स्वदेश का अभिषेक सर्वस्व से करते थे

पर दिखता है लूट का बाजार

सुनते हैं

एक ही घाट था शेर हो या गाय

पर दिखता है सिर्फ़ मत्स्य न्याय ।

सुनते हैं

बाजार भाव समाचारों में

पर दिखता नहीं सामान बाजारों में ।

सुनते हैं—पर—

ऐसे में फ़ूटे गर कुछ ज्वालामुखी जैसा

तो इसमें आश्चर्य कैसा ?

छात्र

कुण्ठाग्रस्त

आज का छात्र,

झिड़क का नहीं दया का पात्र ।

मात पर मात

चोट पर चोट,

शतरंज की पिटी हुई यह गोट ।

किताबों के बोझ से

टूट रही कमर ।

वाह रे धैर्य –

उफ़ नहीं करता मगर ।

पाकर उपाधि हो जाता तैयार ।

दर दर भटकने को

एक और पढ़ा लिखा बेकार ।

गुरुशिष्य संवाद

पूछा दूरभाष पर, शिष्य ने गुरू से

हैं आप कैसे

बताया गुरू ने, जैसे पहले थे फ़क्कड़

हम हैं अब भी वैसे

बेटा तू है कैसा,

नमन ईश्वर को जिसने तेरी आवाज़ सुनाई

क्षणिक सन्नाटे के बाद उधर से आवाज़ आई

कच्ची मिट्टी का ये बर्तन, बनाया था तुमने जैसा ।

संस्कारोज्ञान की धूप में, सुखाया था अपने जैसा ॥

दुनियाँ के इस आँवे में, रख दिया तब तो वैसा ।

अब देख लेना खुद ही, दिखता है अब वो कैसा ॥

बड़प्पन (रोब? क़ाबू? इख्तियार?)

पाँच वर्ष का गौरव उछलता कूदता स्कूल से आया तो उसे देखते ही पिता ने आवाज़ दी –‘गूल्लू !’

-‘हाँ डैड !’

बाहर बैठक मे अंकल बैठे हैं उन्हें जा के नमस्ते करो और तुम्हें स्कूल से जो इनाम वगैरह मिले हैं उन्हे दिखाओ तबतक मैं बाथरूम से आता हूँ ।

वो अपने स्कूल का बस्ता कंधे पर लिए लिए ही बैठक की तरफ जाते हुए बोला -‘अच्छा डैड !’

गौरव को घर मे सब प्यार से गुल्लू कहते थे । वो घर मे हो तो चारो तरफ से गुल्लू गुल्लू की आवाजें आती रहती हैं ।

–‘गूल्लू ! मेरा चश्मा देना ।’

-‘जी डैड ।’

–‘गूल्लू ! जरा बेटा ये पर्दा खींच देना ।’

-‘जी मम ।’

समय बीतता गया और गौरव 16 वर्ष का हो गया ।

–‘गूल्लू ! इन्टरमीडिएट मे जो ऑप्शनल सबजेक्ट (ऐच्छिक विषय) उपलब्ध हैं जरा उनकी लिस्ट ले के आओ और बताओ कि तुम कौन से लेना चाहते हो ।’

-‘जी डैड ।’

रात का यही कोई साढ़े आठ का वक्त होगा । गौरव अभी अभी कहीं बाहर से आया है । बैठक मे दोस्तों के साथ गप्पें लड़ाते पिता ने देखा तो आवाज़ दी ।

-‘गूल्लू ! इतनी देर से कहाँ थे । बता के जाया करो ।’

-‘जी डैड ।’

गौरव ने सहम के कहा और अंदर चला गया । पिता ने गर्व से अपने दोस्तों की ओर देखा जैसे कहना चाहते हों देखा मेरा रोब ।

कहानी संग्रह “भेद भरी…” से

शोषण श्रृंखला – नासूर का इलाज़

 चाय का घूँट लेते हुए गिरीश ने कहा –‘सरिता, आज तुम एक हादसे के बेहद करीब से गुज़री हो ये दूसरी बात है कि कोई हादसा नहीं हुआ परन्तु जीवनलाल और बृजभूषण नाम के नासूर इस शहर मे मजबूती से जमे हैं, इस बात से तो इंकार नहीं किया जा सकता ।’

-‘ये बात तो है । पर सतर्क रहने के अलावा हम कर भी क्या सकते हैं ?’

-‘नहीं, बुराई देख कर भी तटस्थ रहना अपराध है । नासूर का यदि इलाज न किया जाय तो वो फैलता जाता है । कल कोई दूसरी महिला उनके चक्कर मे…..।’

सुबह से अब तक हुई घटनाओं से परेशान सरिता को अब इस सम्बन्ध मे बात करने मे अड़चन महसूस हो रही थी इसलिए उसने बात खत्म करने के उद्देश्य से बीच मे ही टोकते हुए कहा –‘अभी मेरी मनस्थिति ऐसी नहीं है कि मैं कुछ सोच पाऊँ….।’

-‘मुझे अहसास है । दरअसल मैंने कुछ सोचा है ।’ गिरीश बीच मे ही बोल पड़ा ।

-‘क्या?’

-‘तुम्हें मेरा मित्र अजित तो याद होगा ?’

-‘कौन वो डी एस पी अजित प्रताप ?’

-‘हाँ वही । वो गुप्तचर विभाग मे एस पी होकर इसी शहर मे आ गया है ।’

कहानी संग्रह “भेद भरी…” से

शोषण श्रृंखला – एक नासूर

अभी कुल मिला के पाँच वर्ष हुए हैं गिरीश को, इस बड़ी कंपनी मे काम करते हुए और इतने अल्प समय मे ही, वो अपनी मेहनत से प्रबन्धक के पद पर पहुँच गया है । घर मे बस दो ही प्राणी हैं वो और उसकी पत्नी सरिता । अभी उनके कोई बच्चा भी नहीं है । घरेलू छोटे मोटे कामों मे, सरिता की मदद के लिए एक नौकरानी है । उसकी मदद से सरिता सबेरे बढ़िया नाश्ता बनाती है । फिर दोनों मियाँ बीवी जम के नाश्ता करते हैं । गिरीश ऑफिस चला जाता है और सरिता घर मे ताला डाल, नौकरानी को साथ ले कभी बाजार तो कभी कहीं और सैर सपाटे को निकल जाती हैं अथवा बाहर वरान्डे मे पड़े झूले पर बैठ कर उपन्यास पढ़ती है । सरिता यदि कहीं जाती भी है तो भी शाम को पति के आने से पहले वापस आ पति के साथ चाय पीती है । उसके बाद जितनी देर मे गिरीश नहा धो के फ्रेश होता है उतनी देर मे सरिता नौकरानी की मदद से फटाफट खाना बना लेती है, दो प्राणियों का खाना ही कितना बनना होता है । मौहल्ले के आस पड़ोस की औरतें अक्सर अपनी बातचीत मे गिरीश की पत्नी सरिता की दिनचर्या का ज़िक्र करती हैं कि इसके कितने मजे हैं । यहाँ तक कि ये खबरें उड़ते उड़ते मोहल्ले मे रहने वाली समाज सेविका मिसेस चावला तक पहुँच चुकी हैं । बस फिर क्या था एक दिन मिसेस चावला सरिता से मिलने जा पहुँची ।

कहानी संग्रह “भेद भरी…” से